BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।

अथवा
गीता में वर्णित कर्म योग, ज्ञान योग एवं भक्ति योग की विवेचना कीजिए।

उत्तर -

योग शब्द की उत्पत्ति 'युग' धातु से हुई है जिसका अर्थ है मिलना। गीता में इसका प्रयोग आत्मा का परमात्मा से मिलन के सन्दर्भ में हुआ है। योग दर्शन में योग शब्द का प्रयोग चित्त वृत्तियों के निरोध के अर्थ में किया गया है। परन्तु गीता में इस शब्द का व्यवहार ईश्वर से मिलन के अर्थ में हुआ है। गीता में ईश्वर से मिलने या उससे साक्षात्कार करने के लिए विभिन्न मार्गों की चर्चा की गई है। वास्तव में, योग गीता का मुख्य उपदेश है। व्यक्ति में तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक। इन्हीं तीन प्रवृत्तियों के अनुरूप गीता में ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्मयोग की विवेचना की गई है तथा इनमें समन्वय स्थापित किया गया है। मनुष्य जब बन्धनग्रस्त हो जाता है तब इस स्थिति से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय योग ही है। योग के द्वारा बन्धन से मुक्ति मिलती है तथा साधक ईश्वरोन्मुख होता है। ज्ञान योग, कर्म योग तथा भक्ति योग को गीता में मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। गीता का योग सम्बन्धी मत एकांगी नहीं है, क्योंकि यहाँ किसी एक मार्ग पर बल नहीं देकर तीनों के बीच अनुपम समन्वय स्थापित किया गया है।

कर्म योग - गीता का सार कर्म योग है। यह व्यक्ति को निष्क्रियता से बचने तथा क्रियाशील होने की प्रेरणा देती है। गीता के प्रायः सभी स्थानों पर व्यक्ति को सदैव कर्म करते रहने को कहा गया है। कर्म योग ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। कर्म का अर्थ है - आचरण या क्रियाशील रहना। ईश्वर की प्राप्ति उचित कर्म के माध्यम से ही की जा सकती है। ईश्वर रूपी साध्य तक पहुँचने के लिए कर्म मार्ग एक सुगम साधन है।

गीता कर्म करने का आदेश देती है, परन्तु केवल वही कर्म करना अपेक्षित है जो असत्य, अन्धविश्वास से बचावे। कर्म का सम्पादन कर्ता को समग्र ज्ञान एवं विश्वास के साथ करना चाहिए। विश्व के सभी प्राणी निरंतर क्रियाशील रहते हैं तथा कर्म का सम्पादन करते हैं। व्यक्ति को केवल अपने कर्म करने में सतत् प्रयासशील रहना चाहिए तथा सम्पादित कर्म के फल के सम्बन्ध में चिन्ता नहीं करनी चाहिए। कर्म फल के सम्बन्ध में अप्रत्याशित परिणाम की आशा करके कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए। गीता कर्म त्याग का उपदेश नहीं देती है बल्कि कर्म में त्याग का उपदेश देती है। कर्म फल का परित्याग करने वाला व्यक्ति ही सच्चा और वास्तविक त्यागी होता है। साधक का अधिकार केवल कर्म पर होता है न कि कर्म फल पर इसलिए कर्म फल की चिन्ता किए बिना निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। निष्क्रियता अथवा अकर्मण्यता की स्थिति नहीं आनी चाहिए।

गीता का कर्म योग व्यक्ति को कर्तव्य के लिए प्रेरित करती है, परन्तु साथ में इस बात का भी बोध कराती है कि कर्म का सम्पादन सर्वथा निष्काम भाव से होना चाहिए। निष्काम भाव से किया हुआ कर्म व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ की अवस्था प्राप्त करने में सहायक है तथा यह मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर कराता है। निष्काम भाव से किए हुए कर्म के द्वारा लोक-कल्याण की सिद्धि होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि गीता कर्म-त्याग का उपदेश नहीं देती है बल्कि कर्म-फल त्याग का उपदेश देती है।

गीता के निष्काम कर्म का सम्पादन कर्त्तव्य, कर्तव्य के भाव से किया जाना चाहिए। ऐसा ही कांट का भी मत है। कर्त्तव्य में परिणाम कभी भी सन्निहित नहीं रहता है और न उसकी आकांक्षा रखनी चाहिए। दोनों की मान्यता है कि कर्म को कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए।

ज्ञान योग - गीता के अनुसार बन्धन का कारण अज्ञान है, जिसका नाश ज्ञान से ही सम्भव है। गीता का परम पुरुषार्थ मोक्ष है, जिसे प्राप्त करने के लिए ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। ज्ञान के दो भेद हैं- 

(1) तार्किक ज्ञान - इस ज्ञान का सम्बन्ध वस्तुओं के बाह्य रूप से है, जिसकी अभिव्यक्ति बुद्धि करती है। इसे बौद्धिक ज्ञान भी कहते हैं जिसे विज्ञान की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार के ज्ञान में ज्ञाता तथा ज्ञेय के बीच द्वैत मौजूद रहता है।

(2) आध्यात्मिक ज्ञान - इसका सम्बन्ध सत्यता से है। यह वस्तुओं की प्रतीति में उपस्थित सत्यता को निरूपित करने का प्रयास करती है। उसे सत्य एवं वास्तविक ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार के ज्ञान में ज्ञाता एवं ज्ञेय के बीच द्वैत मौजूद नहीं रहता है। ज्ञान प्राप्त व्यक्ति को सभी प्राणी एकसमान प्रतीत होते हैं।

ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति को शरीर, मन एवं इंद्रियों को शुद्ध रखना होता है। विषयों की आसक्ति का तिरस्कार करना पड़ता है। मन एवं इंद्रियों को अपने-अपने विषयों से हटाकर ईश्वर पर केंद्रित करना अनिवार्य होता है तथा ऐसा अभ्यास करने पर मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। ज्ञान की प्राप्ति होने पर व्यक्ति को आत्मा एवं ईश्वर में तादात्म्य सम्बन्ध की अनुभूति होती है। ज्ञान समृद्ध करने के लिए गीता में योगाभ्यास अपनाने को कहा गया है। योग को अपनाने के लिए यहाँ इंद्रियों के दमन की सलाह नहीं दी गयी है, अपितु इंद्रियों को विवेक के नियंत्रणाधीन रखने को कहा गया है। गीता के अनुसार ज्ञानी सभी भक्तों में सर्वश्रेष्ठ होता है, वह भक्त भी होता है तथा. उसके कर्म ईश्वर की आराधना की ओर निर्देशित होते हैं।

भक्ति योग - गीता का भक्ति योग व्यक्ति के भावात्मक या संवेगात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करता है। भक्ति शब्द की उत्पत्ति 'भज' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है - ईश्वर की सेवा। शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से भक्ति का अर्थ है - ईश्वर के प्रति समर्पण। इस मार्ग के साधक को इसके पालन से ईश्वर की अनुभूति स्वतः होती है। यह मार्ग सबों के लिए सुगम है।

भक्ति योग के लिए ईश्वर का व्यक्तित्व पूर्ण होना आवश्यक है। क्योंकि ऐसा ही ईश्वर अपने भक्तों की पुकार सुनने में सक्षम हो सकता है। ईश्वर के प्रति प्रेम, श्रद्धा एवं समर्पण का भाव रखने वाले साधक को ईश्वर अपना प्रिय पात्र बनाकर रखता है। ऐसे साधक के सुख से ईश्वर सुखी होता है तथा दुख से दुखी। भक्त के द्वारा प्रेम से अर्पित सभी पदार्थ ईश्वर को स्वीकार्य होता है। भक्ति मार्ग पर चलने वाले साधक के बुरे कर्मों तथा कष्टों का अन्त ईश्वर कर देता है।

भक्ति मार्ग पर अग्रसर होने वाले साधक में विनम्रता, श्रद्धा एवं विश्वास का होना आवश्यक है। इन गुणों के रहने पर भक्त का मन शुद्ध हो जाता है तथा ईश्वर की चेतना का ज्ञान उसे होता है। यह मार्ग ईश्वर एवं भक्त के बीच की दूरी को समाप्त कर ऐक्य सम्बन्ध की स्थापना करता है। इस मार्ग पर चलने वाला साधक ईश्वर की कृपा से स्वयं ज्ञानी हो जाता है तथा वह पूर्ण हो जाता है।

गीता में इन तीनों ही मार्गों के बीच अनुपम समन्वय स्थापित किया गया है। ईश्वर को इन तीन में से किसी भी मार्ग को अपनाकर प्राप्त किया जा सकता है। कर्म, ज्ञान एवं भक्ति तीन विभिन्न मार्ग हैं जो एक ही लक्ष्य तक साधक को पहुँचाता है। इन तीन मार्गों के बीच किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। तीनों ही मार्ग व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक पक्षों की सुन्दर विवेचना प्रस्तुत करता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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